डेस्क न्यूज। संस्कृत की बेटी हिन्दी,इक दिन स्वच्छन्द विचरती थी।
हिन्दी में विन्दी लगती तो मां जैसे मन हरती थी।।
(1) संस्कार,शुचिता,सुन्दरता, देख विदेशी लुभा गए।
उठा ले गए दुष्ट यवन, उर्दू की कील को चुभा गए।।
भारतीय संस्कृति के रक्षक,प्राण बचाकर भाग गए।
सौंप गए हिन्दी यवनों को,समझो हिन्दी के भाग गए।।
हिन्दी बुरखा पहन के निकली, जहां तहां वह गिरती थी।
हिन्दी में विन्दी लगती तो मां जैसे मन हरती थी।।
संस्कृत की बेटी हिन्दी, इक दिन स्वच्छन्द विचरती थी।।
(2) हिन्दी के कुछ कायर भाई, यवनों के साले बन बैठे।
मुजरा,मांस,शराब में डूबे,यवन के माले जा बैठे।।
हिन्दी के कुछ बीर बीर, यवनों से लड़ने आते थे।
कायर भाई ही यवनरूप धर,भाई से भिड़ने आते थे।।
हिन्दी मरते देख उन्हें, चुपचाप सिसकियां भरती थी।
संस्कृत की बेटी हिन्दी इक दिन स्वच्छन्द विचरती थी।
हिन्दी में विन्दी लगती तो, मां जैसे मन हरती थी।।
(3) हिन्दी ने फिर वर्णसंकरी, संतानों को जन्म दिया।
उर्दू, फारसी, रक्त मिला,कायर हिन्दू ने जन्म लिया।।
किसी को पता नहीं वो हिन्दी,कैसी थी क्या करती थी?
हिन्दी हो गई
वर्णसंकरी,निशदिन पल पल मरती थी।।
संस्कृत की बेटी हिन्दी, इक दिन स्वच्छन्द विचरती थी।।
(4) कुछ वर्षों के बाद दुष्ट यवनों का फिर संहार हुआ।
फिर अंग्रेजों ने आकर, उस
हिन्दी को सौ बार छुआ।।
हिन्दी के भाई कायर, फिर अंग्रेजों के साले बन बैठे।
ये साले तो ऐसे निकले,बहिन के ताले बन बैठे।।
इंग्लिश मदिरा, इंग्लिश नारी, इंग्लिश से हिन्दी डरती थी।
संस्कृत की बेटी हिन्दी, इक दिन स्वच्छन्द विचरती थी।।
(5) हिन्दी ने अंग्रेजी रक्त से, मिली हुईं संतानें दीं।
भूल गए वो अपनी मां को,मां ने कितनी कुर्बानी दीं ।।
पैंट, शर्ट, पैजामा पहने हिन्दी,मिली विचरती थी।
संस्कृत की बेटी हिन्दी, इक दिन स्वच्छन्द विचरती थी।
हिन्दी में विन्दी लगती तो, मां जैसे मन हरती थी।।
(6) तब “ब्रजपाल” ब्राह्मणों ने आगे आ मां को बचा लिया।
बेटी तो भ्रष्ट हुई लेकिन,मां को फिर कंठ में बसा लिया।।
हिन्दी की माता,संस्कृत ही,अब सबका पेट चलाती है।
भ्रष्ट हुए पुत्रों को भी,वो अब भी पुत्र बताती है।।
संस्कृत है भारत की भाषा, विद्वानों के कण्ठ विचरती थी।
संस्कृत की बेटी हिन्दी, इक दिन स्वच्छन्द विचरती थी। हिन्दी में विन्दी लगती तो मां जैसे मन हरती थी।।
(विचारक- आचार्य ब्रजपाल शुक्ल वृंदावनधाम)