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जीवन आनंद है : ब्रह्मचारी गिरीश जी अध्यक्ष, महर्षि विद्या मन्दिर विद्यालय समूह

भोपाल। मान्यता है “जीवन संघर्ष है” अतः आज हमें इस पर ही बात करना चाहिए। वर्तमान परिदृश्य में हमें अपने चारों ओर नकारात्मकता ही प्रतीत होती है। ऐसा क्यों होता है? इसका अर्थ यह नहीं है कि हमारे आस-पास का वातावरण नकारात्मकता से भरा हुआ है। यह भी हो सकता है कि हम सकारात्मकता को देख ही नहीं रहे हैं क्योंकि हम पर नकारात्मकता हावी हो गई है और यही सच है।

हम सभी ने दो प्रकार की मक्खियों को देखा है। एक मक्खी वह है जो गंदगी पर निवास करती है, उसका जीवन मात्र प्रदूषण पर ही निर्भर करता है और वह उस प्रदूषण का उपयोग कर संक्रमण फैलाती है और दूसरी ओर एक और मक्खी है वह उद्यानों, उपवनों में रहती है। अपने जीवन-यापन के लिए पुष्पों के पराग का चयन करती है, उसका उपभोग कर शहद का निर्माण कर उसे एकत्रित कर अपने निवास पर उसका भंडारण करती है। ठीक इसी प्रकार हम भी भीतर से प्रदूषित हो गए हैं। हमारे विचार व दृष्टि भी प्रदूषित हो गई है। इसलिए हम बुरा सोच रहे हैं, बुरा देख रहे हैं, बुरा सुन रहे हैं, बुरा बोल रहे हैं। अतः शुद्धि हमें स्वयं की करनी चाहिए। जब हम भीतर से स्वच्छ रहेंगे तो हमारे विचारों पर उसका प्रभाव पड़ेगा, हमारे चारों ओर का वातावरण सकारात्त्मक हो जायेगा। गुरु नानकदेव जी कहते थे “जिन खोजा तिन पड्यां गहरे पानी पैठ” चेतना की गहराई में आप जो खोजोगे उसे आप प्राप्त कर लोगे। गोस्वामी तुलसी दास जी ने श्रीरामचरित मानस में भी उचित प्रसंग के माध्यम से हमें समझाने का प्रयास किया है।

मन कामना सिद्धि नर पावा। जे यह कथा कपट तजि गावा ।। श्रीरामचरितमानस में काकभुशुंडि जी गरुड़ जी से कह रहे हैं कि जल जब तक दूध में रहता है, तब तक दूध के भाव ही बिकता है, पर ज्यों ही व्यक्ति उसमें कपट की खटाई डाल देता है तो फिर पानी का कोई मूल्य नहीं रह जाता है। रावण और मारीच कपट रूप धारण कर ही मृत्यु को प्राप्त हुए। रावण द्वारा साधु का वेश बनाकर जाने का तात्पर्य यह है कि रावण को अपने निज स्वरूप पर विश्वास नहीं था। व्यक्ति जब कुछ बनता है, जो होता नहीं है, कपट वहीं से प्रारंभ हो जाता है। जो है, उसे छिपाता है। यह त्रिकाल सत्य है कि नाया की इस पद्धति का आश्रय लेने वाले विनाश को प्राप्त होते हैं। व्यक्ति की मति मारी जाती है और वर्तमान में भोगों का आकर्षण भविष्य को पूरी तरह समाप्त कर देता है। यह परंपरा हर युग में चलती रहती है। इसी तारतम्य में एक सुंदर कथा भी है। एक बार एक शिष्य ने गुरु से पूछा कि ‘उत्सव मनाने के लिए कौन सा दिन श्रेष्ठ है?’ तो गुरु ने कहा कि ‘मृत्यु का दिन।’ शिष्य ने कहा, ‘यह कैसे पता चलेगा कि मृत्यु का दिन कौन सा है?’ तब गुरुजी ने कहा- प्रत्येक दिन, प्रत्येक पल को उत्सव के समान मनाएँ तो जीवन का सोलहवां संस्कार मृत्यु भी उत्सव बन जाएगा।’ जीवन में आने वाले सुख-दुःख, उतार-चढ़ाव और परेशानियों को सहज रूप से स्वीकार कर लेना और उन्हें आभूषण समझ धारण कर लेना ही समझदारी है। तभी आप समय के साथ कदम से कदम मिलाकर चल पाएँगे।

जो आज की तिथि में हमारे पास उपलब्ध है उसी में संतोष कर लेना और जो नहीं है उसके लिए शोक नहीं करना जीवन को उत्सव बनाने में कारगर सिद्ध होता है। व्यर्थ में अतीत और भविष्य के बारे में सोचना, वर्तमान को कुएँ में धकेलने के समान है। ऐसा करके हम बाधाओं को निमंत्रण देते हैं। यह बिल्कुल भी आवश्यक नहीं कि आज जो आपके पास है वह जीवनपर्यंत आपका ही बना रहेगा। यदि यह भाव हम तिरोहित कर दें तो जीवन में उत्सव के रंग सदा ही बने रहेंगे। जीवन में यूँ ही उत्सव की स्थिति बनी रहे उसके लिए आवश्यक है कि हम अपने अंतस में झांकते रहें। जो कार्य कल करना है, उसे आज ही करके स्वयं को किसी भी बंधन से मुक्त कर लें और अपनी प्रसन्नता को दोगुना कर लें। आप जैसे हैं वैसे ही भगवान की शरण में चले जाइये। समस्त छल, कपट का त्याग करें तो जीवन आनंदमय हो जाएगा, क्योंकि जीवन तो वास्तव में आनंद ही है।

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