भाजपा सरकार में पत्रकार नहीं सुरक्षित?
फर्जी मामले दर्ज और गिरफ्तारी कर वाहवाही लूट रही भाजपा सरकार की पुलिस

डेस्क न्यूज़ संपादकीय कलम। जब से देश में और प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी हैं तब से देश के चौथे स्तम्भ कहे जाने वाले पत्रकारों पर सबसे ज्यादा फर्जी मामले दर्ज करने के सामने आने लगे हैं। अक्सर देखने को मिल जाता हैं की कोई भी पत्रकार सरकार या सरकार के किसी नुमाइंदे के खिलाफ आवाज उठाता हैं तो सरकार में बैठे लोग उन ईमानदार पत्रकारों की आवाज को दवाने के लिए या तो उन पर फर्जी मामले दर्ज करवा देते हैं या अन्य तरीके से सम्बंधित पत्रकारों को मानसिक प्रताड़ित करनें का कार्य सरकार के नुमाइंदे करते हैं और बेचरा ईमानदार पत्रकार फर्जी दर्ज मामलों का शिकार होकर थानो, कोर्ट, कचहरी के चक्कर काटने को मजबूर हो जाता हैं और भाजपा सरकार जों सबकी सुरक्षा की बात करती हैं उसके कानों में जू तक नहीं रेंगति।
जिसका ताज़ा उदाहरण भोपाल के पत्रकार कुलदीप सिंगोरिया हैं जिनके ऊपर पुलिस नें फर्जी मामला दर्ज कर उन्हें जेल भेज दिया। कुछ ऐसा ही मामला छतरपुर जिले में भी देखने को मिला जहां एक पत्रकार पर 9 फरवरी 2025 के जिले के एक थाने में बगैर जांच के फर्जी मामला दर्ज किया गया जबकि जिस पत्रकार पर यह फर्जी मामला दर्ज किया गया वह पत्रकार 7 फरवरी 2025 को सुबह 9:30 पर अपने घर से जिले से बाहर गया और 3 मार्च 2025 को वापिस छतरपुर आया लेकिन वाह री भाजपा सरकार की पुलिस फर्जी मामला दर्ज कर पत्रकार को मानसिक प्रताड़ित किया गया। अब पीड़ित पत्रकार नें भी मन बना लिया हैं की फर्जी मामला दर्ज कराने वाले से लेकर, गवाह, थाना पुलिस के खिलाफ न्यायालय में इस्तगासा पेश कर न्याय लेगा।
कुछ ऐसा ही भोपाल में एक अनोखा चमत्कार हुआ। स्कूटी को टक्कर मारी बोलेरो ने, एफआईआर हुई किसी कुलदीप सिसोदिया पर, और जेल भेज दिए गए पत्रकार कुलदीप सिंगोरिया! अब यह मत पूछिए कि ऐसा कैसे हुआ, क्योंकि पुलिस विभाग विज्ञान और तर्क से परे है। उसकी अपनी एक अलग दुनिया है, जहाँ आरोप और गिरफ्तारी के बीच उतना ही संबंध होता है जितना संसद और जनता के मुद्दों के बीच।
पत्रकार बेचारा क्या करे? अब धरने पर बैठा है। थाने के बाहर प्रदर्शन कर रहा है, चक्काजाम कर रहा है। लेकिन जो नेता हर साल होली-दीवाली पर पत्रकारों को बुलाकर मिठाइयों की थाली में लोकतंत्र पर लेक्चर परोसते थे, वे सब नदारद रहे ( वैसे मैं इस लोकतांत्रिक व्यवस्था का समर्थक नहीं हूं, मेरा मानना है दूरी अच्छी है) ख़ैर, वो ढूंढे नहीं मिले जो हर प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहते थे, “हम पत्रकारों का बहुत सम्मान करते हैं!”दरअसल, उनका ‘सम्मान’ सिर्फ उसी पत्रकार के लिए होता है जो सरकारी प्रेस नोट को हूबहू पढ़कर खबर बना दे, सवाल न पूछे, जवाब की उम्मीद न करे और समय-समय पर उनके चमकते चेहरे की तस्वीरें छापता रहे।
पत्रकार सिंगोरिया को पुलिस ने फोन किया, वो खुद चलकर थाने गए, यह सोचकर कि शायद कोई औपचारिकता होगी। लेकिन औपचारिकता की जगह उन्हें औपचारिक रूप से अंदर कर दिया गया! बेचारे को यह नहीं पता था कि थाने में सत्य और तथ्य से ज्यादा महत्वपूर्ण ‘तंत्र’ होता है।
अब प्रशासन कह रहा है—”जांच होगी!” अरे वाह! जबरदस्ती उठाकर जेल में डाल दिया और अब जांच होगी? यह वैसा ही है जैसे पहले किसी को पीटकर पूछो—”भाईसाहब, बताइए, गलती किसकी थी?” और कमाल देखिए, पत्रकारों के विरोध के बाद थाना प्रभारी को लाइन अटैच कर दिया गया। ऐसा लगा जैसे असली दोषी यही था! जैसे समस्या यह नहीं कि गलत आदमी जेल गया, बल्कि समस्या यह थी कि कार्रवाई का नाटक समय पर शुरू नहीं हुआ!
इधर विपक्ष भी जाग गया। कमलनाथ जी ने सोशल मीडिया पर वीडियो डाल दिया, ट्वीट कर दिया, बयान दे दिया—माने पूरा लोकतांत्रिक कर्मकांड संपन्न हुआ! अब यह अलग बात है कि लोकतंत्र में अब इंसाफ़ सड़क पर नहीं, ट्विटर थ्रेड में मिलता है। इस पूरे मामले में पुलिस, नेता और प्रशासन एक शानदार भूमिका निभा रहे हैं। पुलिस का कहना है—”हम निष्पक्ष जांच करेंगे!” नेता का कहना है—”हम पत्रकारों के साथ हैं!” और पत्रकार सोच रहे हैं—”हम किसके साथ हैं?”।
(आशुतोष द्विवेदी संपादक शक्ति न्यूज)











