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भविष्य की आहट / सौहार्द के नाम पर लगता समस्याओं का अम्बार: डा. रवीन्द्र अरजरिया

डेस्क न्यूज। जीवन के सभी पहलुओं को आस्था, विश्वास और समर्पण से नियंत्रित किया जाता है। इन्हीं माध्यमों को अब चालकियां, चालबाजियां और चतुराई से विकृत करके स्वार्थ सिद्ध का लक्ष्य भेदन किया जाने लगा है। धार्मिक परिदृष्य में भयाभव संभावनाओं से डराकर कथित ठेकेदारों ने निर्मल मन वाले श्रध्दालुओं को ठगने के लिए नये पैतरे आजमाने शुरू कर दिये है।

जन, धन और मन बटोरने हेतु कथित चमत्कार दिखाकर, अतीत बताकर, भविष्य सुधारने का आश्वासन देकर आसमान में उडने की मृगमारिचिका पैदा की जा रही है। जनबल को भीडतंत्र में बदलकर दबाव का षडयंत्र करने वाले लोग समाज के सभी पहलुओं को सीधा प्रभावित करने में जुटे हैं। राजनेता अपने वोट बैंक में बढोत्तरी हेतु, कलाकार अपनी लोकप्रियता बढाने हेतु, उद्योगपित अपने उत्पादन की बिक्री हेतु, व्यापारी अपने मुनाफे हेतु, महात्वाकांक्षी अपने प्रभाव हेतु, समस्याग्रस्त अपने निदान हेतु और संघर्षरत अपनी सफलता हेतु अंधविश्वासी लोग धर्म के इन कथित ठेकेदारों के चरणों में नतमस्तक हो रहे हैं।

इन अंधविश्वासों की आहुतियों से केवल और केवल कथित ठेकेदार का ही भला हो रहा है। उसका ही प्रभाव बढ रहा है, उसका ही सम्मान बढ रहा है, उसका ही धन बढ रहा है, उसकी ही विलासता बढ रही है, उसका ही वैभव बढ रहा है, उसकी ही प्रतिष्ठा बढ रही है, उसका ही वर्चस्व कायम हो रहा है। इसी दम पर वह स्वयं, उसके परिजन, उसके स्वजन, उसके निकटवर्ती लोग संविधान, कानून और नियमों की खुलेआम धज्जियां उडाते देखे जा सकते हैं किन्तु उत्तरदायी व्यवस्था तंत्र मूक दर्शक बनकर स्वयं की नौकरी बचाने में लगा है। आम आवाम परेशान हो रही है। समस्याओं का अम्बार लगने लगा है। व्यवस्था से जुडे उत्तरदायी अधिकारियों को इन कथित ठेकेदारों की सुरक्षा, सुविधाओं और सहयोग करने के अतिरिक्त दायित्व दिये जा रहे हैं। निजिता सिंहासन पर आसीत धर्म को सार्वजनिक रूप से समाज को प्रभावित करने की छूट दी जा रही है। जीवन जीने की पद्धति के आधार पर एकता का शंखनाद किया जा रहा है। जातिगत बंधनों को तोडने की कथित मुहिम से संगठन की शक्ति को परिभाषित करने वालों ने सबसे पहले साइबर, सोशल, प्रिंट, इलैक्ट्रानिक जैसे प्रचार संसाधनों को अपनी धनसंपदा से अपना पक्षधर बनाया।

लोकप्रियता के शीर्ष पर पहुंचाने हेतु सक्रिय ऐजेन्सियों की सेवायें लेकर आम जनमानस को अपने जाल में फंसाने का षडयंत्र किया और फिर विधायिका, कार्यपालिका सहित न्यायपालिका तक से जुडे लोगों को अपने चरणों में नतमस्तक होने हेतु प्रयास तेज कर दिये। अन्तहीन इच्छाओं का पुतला बनी मानवीय काया को शान्ति, आनन्द और सुख प्राप्ति का थोथा आश्वासन देकर कथित ठेकेदारों ने अपना गुलाम बना लिया। नेतृत्व द्वारा स्वीकारी गई गुलामी ने ही समूचे तंत्र को किंकर्तव्यविभूढ की स्थिति में पहुंचा दिया है। ऐसे में धर्म का वास्तविक स्वरूप यानी परा-विज्ञान को निरंतर किस्तों में कत्ल होता जा रहा है।

प्राचीनतम ध्वनि शास्त्र, अंतरिक्ष शास्त्र, मंत्र शास्त्र, तंत्र शास्त्र, यंत्र शास्त्र, ध्यान शास्त्र, योग शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, तरंग शास्त्र, तंत्रिका शास्त्र, चिकित्सा शास्त्र, विमान शास्त्र, यज्ञ शास्त्र, शस्त्र शास्त्र, नक्षत्र शास्त्र, ऊर्जा शास्त्र, उष्मा शास्त्र जैसे 108 मूल शास्त्र अपनी पुनर्स्थापना हेतु जार-जार रो रहे हैं। इस दिशा में सरकारें उदासीन है, कथित मठ निष्क्रिय हैं, कथित ठेकेदार मौन हैं, कथित योजनायें धन संकलन तक ही सीमित हैं और हाशिये पर पडे हैं जागरुक लोग। पैसों की दम पर लोकप्रियता के ग्राफ में सर्वोच्च दिखने वाले कथित ठेकेदार तो स्वयं के संसाधनों की वृद्धि में ही लगे हुए हैं। उन्हें न तो वास्तविक धर्म से मतलब है और न ही उन्हें परा-विज्ञान के गूढ रहस्यों की जानकारी है। वे अपने शब्द जाल, रटे-रटाये संवाद, संस्कृत के चन्द श्लोक, हाथ की सफाई, कथित चमत्कार, मनगढन्त कथानक आदि को हथियार बनाकर लोगों को ठगने में लगे हैं।

आश्चर्य होता है कि कठिन प्रतियोगी परीक्षायें पास करके नौकरी में आने वालों से लेकर परिपक्वता की ऊंची पायदानों पर बैठे लोग भी कथित ठेकेदारों के तिलिस्म में फंसकर अपने पदों का दुरुपयोग कर उन्हें लाभ पहुंचाने की होड में लगे हैं। वर्तमान में तो फिल्मी दुनिया में अभिनय की नई ऊंचाइयां छूने वाले भी धर्म के इन ठेकेदारों के आगे बौने साबित हो रहे हैं। इनके आगे तो मनोविज्ञान के महारथी भी हाशिये पर पहुंच चुके हैं। क्षेत्रीय टोना-टोटका परम्परा के एक छोटा से प्रयोग द्वारा पूर्वाभाष करने की क्षमता ग्रहण करने के बाद उसे प्रस्तुत करने की कला में महारत हासिल करना, कोई कठिन अध्यात्मिक साधना नहीं है। इस तरह के टोटकों का प्रयोग तो आदिवासी क्षेत्रों में सैकडों सालों से जनहितार्थ किया जाता रहा है जो कालान्तर में चादर उठाकर मदारी-जमूडे वाले खेल के रूप में शहरों तक पहुता था।

इस तरह के मजमे हाट-बाजारों में लगाये जाते रहे हैं। विचारणीय बिन्दु यह है कि आधुनिक युग में जहां अन्तर्जातीय विवाह, सर्वजातीय सामूहिक भोज, सनातनी समागम और राष्ट्रीयवादी विचारधारा में निरंतर विकास हो रहा है। संविधान के आधार पर स्वतंत्र अभिव्यक्ति, निजिता के अधिकार और मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के अधिकार उपलब्ध हैं वहां पर जाति-बंधन, वर्ग-भेद और ऊंच-नीच जैसे शब्दों को मिटाने के नाम पर भीड-तंत्र व्दारा अव्यवस्थायें पैदा करना कहां तक उचित है। सामाजिक सौहार्द के नाम पर लगता समस्याओं का अम्बार किसी भी हालत में उचित नहीं कहा जा सकता। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।

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