भविष्य की आहट/ शेर और रंगे सियारों की भीड़ में आधुनिक परीक्षण की प्रासांगिकता: डा. रवीन्द्र अरजरिया

डेस्क न्यूज। राजनैतिक सरगर्मियों का दौर तेज होने लगा है। ठंड के मौसम में बयानों की गर्मी फैलने लगी है। चौराहों से लेकर चौपालों तक दल-बदलुओं की चर्चायें हो रहीं हैं। कहीं दलों के सिध्दान्तों की चिता जलाई जा रही है तो कहीं आदर्शों को तिलांजलि दी जा रही है। एक ओर विरोधियों को गले लगाने की सिलसिला चल निकला है तो दूसरी ओर कटु-आलोचनाओं के पुराने दौर को अदृष्टिगत किया जा रहा है। चारों ओर स्वार्थ की बरसात हो रही है। विपरीत विचारधारा वाले दल एक साथ हुंकार भर रहे हैं।
आरोपों-प्रत्यारोपों का अतीत आलिंगनबध्द हो चुका है। यह सब लोकसभा चुनावों के माध्यम से दिल्ली दरवार का सिंहासन हथियाने के की जंग का हिस्सा है। राम के अस्तित्व पर प्रश्न-चिन्ह अंकित वाले लोग मंदिरों में माथा टेकते नजर आ रहे हैं, त्रिपुंड लगाकर साधु जैसा वेष धारण करके सफल अभिनेता होने की परीक्षा दे रहे हैं। व्यक्ति की सच्चाई जानने के लिए आधुनिक विज्ञान ने पॉलीग्राफ टेस्ट, लाई डिटेक्टर, नार्को टेस्ट, ब्रेन मैपिंग जैसे अनेक अविष्कार किये हैं। पैत्रिक मानसिकता परखने हेतु डीएनए टेस्टिंग भी उपलब्ध हैं परन्तु शायद ही कोई राजनेता इन परीक्षणों से गुजरने हेतु तैयार होगा। लगभग सभी के पास दो तरह के दांतों वाला मुंह, पल-पल पटलती जुबान, पत्ते-पत्ते पर करवट बदलने वाली रंग बदलती काया मौजूद है जो सोच, शब्द और कार्यों में निरंतर भेद दिखा रही है। देश के सीधे-सच्चे लोगों के मध्य कथित अंग्रेजों ने मानवतावाद के नाम पर धीमा जहर घोलना शुरू कर दिया था।
संस्कृति की काया पर घाव करने वाले क्रूर आक्रान्ताओं से कहीं ज्यादा घातक तो मीठ विष देने वाले गोरे थे, जिन्होंने देश की सांस्कृतिक विरासत अस्तित्वहीन करने वाले घातक पाठ अपनी लंदन वाली पाठशाला से भेजना शुरू कर दिया था। परिणामस्वरूप आस्था की निजिता को सार्वजनिक प्रदर्शन की वस्तु बनाकर सरेआम बेचा जाने लगा। संत कबीर को भूलकर कहीं आरती की गूंज पर आपत्ति दर्ज होने लगी तो कहीं अजान की आवाज का विरोध। कहीं धार्मिक मनमानियों को श्रध्दा की स्वतंत्रता के साथ जोडकर परोसा गया तो कहीं तानाशाही को मानवाधिकार की दुहाई पर संरक्षण मिला। भगवान, भाव और भक्ति को आडम्बर कहने वाले लोग आज मतदाताओं को रिझाने के लिए चंदन लगे चेहरों का फोटो सेशन करवाने में जुटे हैं।
महाराष्ट्र में शेर के साथ दहाडने वाले व्यक्तित्व के परिवारजनों ने घोर विरोधियों के साथ गद्दी हथियाने के लिए हाथ मिला लिया था तो भगवां के साथ रूठने मनाने वाले ने बिहार में कुर्सी बचा ली। कमल का फूल, पंजा, हंसिया-हथौडा, हंसिया-बाली, घडी, शंख, साइकिल, हाथी, तीर, दो फूल, दो पत्तियां, उगता हुआ सूरज, लालटेन, तीर-कमान, रेलवे का इंजन, झाडू जैसे प्रतीकों के साथ घमासान मचा हुआ है मगर प्रतीकों के मायने गौढ हो गये हैं। लालच, स्वार्थ और अहंकार के पोषण के लिए समीकरण साधे जा रहे हैं। संप्रदायगत, जातिगत, क्षेत्रगत, भाषागत, संस्कारगत, संस्कृतिगत विभेद फैलाकर लोगों को बांटने का काम चल रहा है। देश के अन्दर स्वयं की विरासत वापिस पाने और न देने का चलन तेज होता जा रहा है।
नाजायज कब्जों को जायज ठहराने के लिए कानून के लचीलेपन को हथियार की तरह प्रयुक्त करने वाले रात को अदालतों के दरवाजे खुलवाते हैं। अपनी विशिष्टता का बखान करते हैं। मनगढंत संभावनाओं का जिक्र करके लोगों को विसम परिस्थितियां पैदा करने के लिए उकसाते हैं और इन सबके लिए बसूलते हैं भारी-भरकम मेहनताना। ऐसा करने वालों की जमात में एक दल का ही संख्याबल ज्यादातर काम करता देखा जा रहा है। वास्तविकता तो यह है कि देश का आम नागरिक आज भी बेहद भोला है जिसे भरमाने के लिए घातक चालबाजों के गिरोह अपने सोचे-समझे षडयंत्र के तहत बिकाऊ प्रचार साधनों का खुलकर उपयोग कर रहे हैं। संचार क्रान्ति का खुलकर दुरुपयोग करने वालों के लिए दुनिया मुट्ठी में कैद होकर रह गई है। सीमापार बैठकर भी देश के अन्दर माहौल खराब करने वालों की कमी नहीं हैं। सत्ता के दंगल में भी अब पारदर्शी चरित्र के स्थान पर धन-बल-जन का प्रदर्शन हो रहा है। कार्यपालिका की आंखों में आंखे डालकर बात करने वाले जनप्रतिनिधि कहीं खो से गये हैं।
चांदी की चमक ने भोले लोगों को मृगमारीचिका के पीछे दौडा दिया है। स्वाधीनता के बाद से ही दमदार, प्रभावदार और सामर्थदार जैसे शब्दों की परिभाषायें कुटिलता, चालाकी और चापलूसी में बदलती चलीं गईं। राजनीति की नींव का पत्थर बनी समाजसेवा को भी कारोबार बना दिया गया है। वर्तमान परिवेश में एक भावना प्रधान व्यक्ति अपनी सेवावृत्ति से कभी भी व्यवस्था का अंग नहीं बन सकता। विधायिका तक पहुंचने वाली योग्यताओं ने नये मापदण्ड स्थापित कर लिये हैं। कार्यपालिका का हिस्सा बनने के लिए ज्ञान की आवश्यकता से अधिक जाति महात्वपूर्ण हो गई है। न्यायापालिका के अपने अलग पैमाने हैं जिनका विश्लेषण करने की कानून मनाही है।
श्रीराम के चित्र के साथ बनाये गये संविधान की ओट अनेक विसंगतियां पिरो दी गईं थीं, जो बची उन्हें भी खद्दरधारियों ने समय-समय पर संशोधनों के नाम पर ठूंस दिया ताकि विश्वगुरु के सिंहासन पर आसीत रहने वाला परा-विज्ञानी राष्ट्र हमेशा-हमेशा के लिए दफन हो जाये। बडी लकीर न खींचने की सामर्थ वालों ने लकीर मिटाकर छोटी करने के भरसक प्रयास किये। ऐसे में चुनावी दुंदुभी की प्रतीक्षारत दलों के मुखियों, मुखियों के आकाओं और आकाओं के सिपाहसालारों का सच्चाई जानने वाले आधुनिक परीक्षणों यानी टेस्ट से गुजना नितांत आवश्यक है ताकि शेर और रंगे सियार में अन्तर परिलक्षित हो सके। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।