भविष्य की आहट/ महाकुम्भ के बाद सनातन का सत्य-संकल्प: डा. रवीन्द्र अरजरिया

डेस्क न्यूज। महाकुम्भ का समापन नजदीक आते ही श्रध्दालुओं की संख्या में आशातीत बढोत्तर हो रही है। देश के कोने-कोने से लोगों के पहुंचने का कीर्तिमानी सिलसिला निरंतर जारी है। लम्बी दूरी तक की पदयात्रा का कठिन सोपान भी सहजता से पार हो रहा है। संगम तट पर अभी तक 60 करोड से अधिक आस्थावानों व्दारा पावन स्नान किया जा चुका है। इन सभी स्नानार्थियों को समर्पित सनातनी कहना उचित नहीं है। जीवन के भौतिक झंझावातों का चमत्कारिक समाधान चाहने वाले भी स्नानार्थियों की संख्या में शामिल हैं और दिखावे के लिये धार्मिक बनने का प्रदर्शन करने वाले भी। भीड में पर्यटन की लालसा वालों ने भी भागीदारी दर्ज की हैं और वास्तविक साधकों ने भी।
दूसरी ओर वैदिक ग्रन्थों में अध्यात्म का लौकिक अर्थ वसुधैव कुटुम्बकम् के रूप में परिभाषित किया गया है जबकि उसकी पारलौकिक विवेचना आत्मने मोक्षार्थे के रूप की गई है। प्रयागराज में डुबकी लगाने वालों को यदि सनातन के सत्य का संकल्प करा दिया जाये तो निश्चय ही देश की विभाजनकारी समस्याओं की इति होते देर नहीं लगेगी। सर्वे भवन्तु सुखिन: के सिध्दान्त पर आधारित सनातन का सामाजिक स्वरूप मानवतावादी दृष्टिकोण का पोषक है जो समरसता, समानता और सामंजस्य की त्रिवेणी स्थापित करता है। आश्चर्य होता है कि जहां वैदिक साहित्य में वर्णित महाकुम्भ की मान्यताओं को अंगीकार करके प्रयागराज में स्नान करने वाले भी सडक से लेकर सदन इस पुण्यकाल और उसमें घटी षडयंत्रकारी घटनाओं को मुद्दा बनाकर लाभ का अवसर तलाश रहे हैं वहीं स्वभावगत आलोचकों व्दारा महाकुम्भ को मृत्युकम्भ, फालतू कुम्भ, विषैला जल, अव्यवस्थाओं का आयोजन जैसे मनमाने शब्दों से संबोधित किया जा रहा हैं।
इन खद्दरधारियों के परिजन स्वयं महाकुम्भ की पुरातन परम्परा का अंग बनकर आत्म कल्याण की कामना कर चुके हैं। वैदिक कर्मकाण्ड से जीवन के नवीन कार्यो का शुभारम्भ करने वाले अनेक लोग अपनी स्वार्थपूर्ति हेतु ग्रन्थों के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह अंकित कर रहे हैं। धनार्जन, मतार्जन और सत्तार्जन के लिये कुछ भी कर गुजरने वाले कथित हिन्दुओं को अपने वंशसूत्र की परम्परा का गहराई से अध्ययन करना चाहिये। निर्वाचन काल में जनेऊ, चंदन, माला, धोती पहनकर मंदिरों में माथा टेकने का ढोंग करने वालों को 21 सदी के भारतवासी पहचानते जा रहा हैं। जातिगत जनगणना से विभाजनकारी षडयंत्र भी उजागर होते जा रहे है।
अनेक धार्मिक संस्थानों की व्यवसायिकता भी सामने आती जा रही है। धन-संचय की नियत से नित नये संकल्प लेने वाले अनेक भगवांधारियों की जमातें में भी इजाफा होता जा रहा है। स्व: का त्याग कर परमार्थ-पथ बढने वालों के व्दारा सांसारिक प्रलाप किया जाना कदापि उचित नहीं है। स्वयं का पिण्डदान करके काया के कवच को त्यागने से लेकर काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार तक को तिलांजलि देने वाले अनेक हस्ताक्षर समाजहित, जनहित और राष्ट्रहित की दुहाई पर लोकप्रियता के सिंहासन और वैभवपूर्ण जीवन पाने की आकांक्षा पाले हैं। सत्ता, शासन और समाज को चरणों में झुकाने की लालसा ही पतन का दरवाजा खोलती है। सनातन के सिध्दान्तों को आम आवाम तक पहुंचाने के लिए ही महाकुम्भ जैसे पावन पर्वों की श्रंखला स्थापित की गई थी जिसका सकारात्मक उपयोग करके सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय को धरती पर पुन: उतारा जा सकता है। देश की लगभग आधी जनसंख्या की आस्था को संगम तट पर सनातन की वास्तविक परिभाषा अपनाने का संकल्प दिलाने मात्र से ही कुटतापूर्ण व्यवहार का सौहार्दपूर्ण परिवर्तन सम्भव था।
महाकुम्भ के बाद भी इस तरह के प्रयास किये जा सकते हैं। इस हेतु धार्मिक संस्थाओं, सामाजिक समितियों, स्वयंसेवी संगठनों सहित राजनैतिक दलों को आपसी प्रतिस्पर्धा भुलाकर सनातन के वास्तविक सिध्दान्त को जन-जन तक पहुंचाकर उसे अंगीकार कराने हेतु संयुक्त प्रयास करना होंगे। कुम्भ स्नानार्थियों, उनके परिजनों, स्वजनों आदि तक पहुंचकर संकल्प दिलाने का अभियान चलाना चाहिए। इसी दौरान गैर सनातनियों के साथ भी सम्पर्क साधकर उन्हें भी इस अभियान का अंग बनाया जा सकता है। अल्लाह का मुसलमान और सनातन का हिन्दू वास्तव में एक ही पथ पर चलते हैं जिसे परमशक्तिमान, ज्योतिस्वरूप, शाश्वत कहा गया है। वह निराकार है, अखण्ड है और है सर्वव्यापी। पराविज्ञान की अनेक पहेलियों के मध्य स्थापित इस अनूठे कीर्तिमानी महाकुम्भ से अनेक स्व:प्रसारित संदेश निकले। दुनिया भर के नामची लोगों ने आत्मप्रेरणा से भागीदारी दर्ज की। आस्था के नये व्दार खुले। समर्पण की विशेष परिभाषायें गढी गईं। सेवा के नवीन गलियारे देखने को मिले।
संतों को सुविधायें प्रदान करने में गैर हिन्दुओं की भागीदारी रही। आपूर्ति का तो अधिकांश भाग उनके ही हिस्से में था। पाश्चात्य की सुख-सुविधा से दूर साधनात्मक कठिनाइयों के मध्य गुजरने वाले गोरों ने एक बार फिर सनातन की शान्तिमयी जीवन पध्दति को प्रणाम किया। तपस्या के विभिन्न सोपानों का खुलकर प्रत्यक्षीकरण हुआ। आगन्तुकों ने अपनी सामर्थानुसार दान किया। श्रध्दालुओं की शालीनता ने परचम फहराया। ऐसे में सीमापार बैठे आकाओं के इशारे पर मीरजाफरों के गिरोहों ने षडयंत्रकारियों की मंशा पूरी करने की गरज से हादसों को अंजाम देने में कथित भूमिका का निर्वहन किया। सरकारों के व्दारा की गई व्यापक व्यवस्था में भी अनेक अधिकारियों की मनमानियां खुलकर सामने आती रहीं।
यह सब धनलोलुपता, स्वार्थपरिता और वैभवसंचय की मगृमारीचिका के पीछे भागने वालों के व्दारा किये जाने वाले कृत्य थे। इन कृत्यों ने भी कीर्तिमान गढे। कुल मिलाकर यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि महाकुम्भ-काल के बाद भी यदि समाज के विभिन्न कारकों से जुडे संगठन एक जुट होकर सनातन के वास्तविक सिध्दान्तों को लेकर घर-घर, जन-जन तक पहुंचाने में जुट जायें तो उनके व्दारा दिलाये जाने वाले संकल्प से राष्ट्र को पुन: विश्वगुरु की उपाधि प्राप्त होते देर नहीं लगेगी। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।