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भविष्य की आहट/ त्रिचरणीय आतंक की कैद में तडफता सौहार्द: डा. रवीन्द्र अरजरिया

डेस्क न्यूज। समूचे संसार में समस्याओं का अम्बार लगा है। लोगों की मनमानियां चरम सीमा पर हैं। संविधान, कानून, नियम, शर्तें, समझौते, मान्यतायें, परम्परायें सभी टूट चुकीं हैं। व्यक्तिगत सुख का सिद्धान्त पूरी तरह से लागू हो चुका है। पहले स्वयं, फिर परिजन और बाद में स्वजनों तक पहुचकर संवेदनायें समाप्त हो जातीं हैं। समाज, देश और विश्व की चिन्तायें अपनी चिता पर स्वाहा होगीं है। धन, सम्पत्ति और संपदा की मृगमारीचिका के पीछे भागने वालों में लगभग 99.99 प्रतिशत जनसंख्या शामिल हो चुकी है। यही आंकडा संसार के देशों पर भी लागू होता है जो स्वार्थ की बुनियाद पर शीशमहल खडा करने में जी जान से जुटे हैं। कथित अनुसंधानों के द्वारा व्यवस्था को तंत्र को अव्यवस्थित करने वाले तो विलासता की चाह में गले तक डूब चुके हैं। ऐसे लोग भविष्य की कीमत पर भी वर्तमान का आनन्द तलाशने में जुटे हैं।

प्राकृतिक संसाधनों का दोहन चरम सीमा पर पहुंच गया है। जीव से अधिक महात्व मशीनों को दिया जाने लगा है। वर्चस्व की जंग में हथियारों की होड, उपकरणों का प्रयोग और जीवित सांसों को गुलामी की बेडियां पहनाने का क्रम चल निकला है। जाति, क्षेत्र, भाषा, जीवन शैली आदि के आधार पर विभाजनकारी रेखायें निरंतर खींची जा रही हैं। धर्म निरपेक्षता के नाम पर धर्मविरोधियों द्वारा मानवता के खिलाफ षडयंत्र किये जा रहे हैं। आरक्षण के प्रकोप से जातिगत धरातल पर खून की नदियां बहाई जा रहीं हैं। जन्म के आधार पर सुविधाओं का पिटारा खोलकर आपसी वैमनुष्यता की की रेवडियां बांटी जा रहीं हैं। मुफ्तखोरी को बढावा देकर हरामखोरों की जमातें तैयार की जा रहीं हैं। ऐसे में दूरदर्शिता को हाशिये पर पहुंचाने वाले कभी चुनावी माहौल को रक्तरंजित करने का षडयंत्र करते हैं तो कभी आन्दोलनों के नाम पर असामाजिक तत्वों के सहयोग से दंगे फैलाते हैं।

भाषायी विवाद पैदा करने वाले राजनैतिक दलों ने तो अपने संस्थापक के सिद्धान्तों तक को दरकिनार करते हुए दूसरे राज्यों में बसे अपने राज्य के लोगों हेतु मुश्किलें पैदा कर दीं हैं। परिवारवाद के साथ सत्ता को जोडकर उसे अधिकार की परिधि में शामिल कर लिया गया है। चाटुकारों की टोलियां निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए अपने आकाओं की संतानों को जन्म के साथ ही विलासता भरे शासन की लोरियां सुनाने लगतीं हैं। विरोध के नाम पर प्रत्येक बिन्दु पर नकारात्मकता परोसने वाले विवेकहीन लोगों के बढते कद ने समाज की विवेकहीनता का उदाहरण परोस दिया है। संसार भर में हथियारों के सौदागरों का परचम फहरा रहा है। मृत्यु को उद्योग बनाने वाले देशों का षडयंत्रकारी नेतृत्व केवल और केवल अपनों तक ही सीमित होकर रह गया है। परिजनों को लाभ दिलाने हेतु विकसित देश के सत्ताधारियों द्वारा राष्ट्रहित को तिलांजलि दी जा रही है।

बानगी के तौर पर देखें तो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जहां ट्रंप ने अपने बेटों की कम्पनी वर्ल्ड लिबर्टी फाइनेंशियल के साथ पाकिस्तान क्रिप्टो काउंसिल का समझौता करके क्रिप्टोकरेंसी और डिजिटल वित्तीय परिवर्तन के क्षेत्र में मील का पत्थर बनने की घोषणा की वहीं राष्ट्रीय स्तर पर सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राजीव गांधी फाउंडेशन ने चीन से फ्री ट्रेड एग्रीमेंट के समर्थन में एक प्रोजेक्ट हेतु ₹30 लाख डॉलर की आर्थिक सहायता चीनी दूतावास से दान प्राप्त की। इस संस्था में राहुल गांधी, मनमोहन सिंह और पी. चिदंबरम सहित अनेक सदस्य शामिल हैं। स्थानीय स्तर पर भी कार्यपालिका और विधायिका के अनेक सदस्य अपने परिवारजनों के नाम पर संस्थायें गठित करके जमकर पैसा लूटने में लगे हैं।

एक ओर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर मीरजाफरों की सहायता से विकासशील देशों को अस्थिर करके उन्हें पडोसियों के साथ लडाने में दुनिया के ठेकेदार अपनी पूरी ताकत झौंक रहे हैं वहीं दूसरी ओर देश के अन्दर सुलतान बनने की चाहत रखने वाले नैतिकता को दफन करके खून की नदियां बहाने की स्थितियां पैदा कर रहे हैं। स्थानीय स्तर पर तो आतंक के बादलों ने संविधान के सूरज को पूरी तरह ही ढक लिया है। इसके लिए धनबल, बाहुबल, भीडबल, पहुंचबल, सत्ताबल, सम्मानबल, भौंकालबल, प्रोपोगंडाबल जैसी आंधियां तेजी से चल रहीं हैं। उत्तरदायी तंत्र मूक दर्शक बना अपनी भारी भरकम पगार पर मौज मना रहा है। सरकारी नौकरी में लगे करोडों मतदाताओं को लुभाने के लिए अनावश्यक रूप से वेतन वृद्धि, सुविधाओं में बढोत्तरी, पेंशन में इजाफा जैसे कार्य बेधड़क किये जा रहे हैं।

ईमानदार करदाताओं द्वारा दिये जाने वाले पैसों, निरीह लोगों से होने वाली जबरजस्ती सरकारी वसूली और मनमाने बनाये जाने वाले नियमों से भरने वाले खजाने से यह लालची भुगतान निरंतर हो रहा है। एक सामान्य परिवार की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति का मापदण्ड जनसेवकों से सरकारी अधिकारी बन चुके लोगों पर लागू नहीं किया जाता है। उन्हें विलासता के बिछौने, स्वर्ण पात्रों में भोजन, वातानुकूलित वातावरण, मखमली वाहन, राजसी सम्मान जैसे संसाधन उपलब्ध कराये जा रहे हैं।

उनकी मनमानियों को मानवीय त्रुटि या यांत्रिक खराबी कह कर अभय दान दिया जाता रहा है ताकि थोक में मिलने वाले वोटों पर एकाधिकार किया जा सके। ऐसे में अन्तर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर चल रहे षडयंत्र को समाप्त किये बिना पूर्ण शान्ति की कल्पना करना, किसी मृगमारीचिका के पीछे भागने जैसा ही है। वर्तमान में त्रिचरणीय आतंक की कैद में तडफते सौहार्द को बचाने के लिए आम आवाम को आगे आना होगा तभी सकारात्मक परिणाम सामने आयेंगे अन्यथा विकट से विकराल होती स्थितियां जीवन के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिंह कर देंगीं। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।

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