भविष्य की आहट/ मिटाना होंगे न्यायपालिका के वर्तमान स्वरूप पर अंकित होते प्रश्नचिन्ह: डा. रवीन्द्र अरजरिया

डेस्क न्यूज। विदेश की धरती पर देश की आन्तरिक व्यवस्था को कोसने का फैशन चल निकला है। सरकारों के विपक्षी दलों व्दारा तो अवसर मिलते ही संसार भर में भारत के संविधान की मनमानी परिभाषायें करने, वर्तमान स्वरूप की विकृत तस्वीर को पेश करने और व्यवस्था को कोसने के प्रयास किये जाते रहे हैं परन्तु अब देश की सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने भी सात समुन्दर पार जाकर आन्तरिक तंत्र की कार्य प्रणाली पर प्रश्नचिन्ह अंकित करने शुरू कर दिये हैं। मारीशस में सन् 1978 से 1982 तक प्रधान न्यायाधीश के पद पर रहे प्रख्यात न्यायविद सर मौरिस रॉल्ट के स्मृति आयोजन 2025 का उद्घाटन भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बीआर गवई ने किया।

मौरिस रॉल्ट स्मृति व्याख्यान में ‘सबसे बड़े लोकतंत्र में कानून का शासन’ विषय बोलते हुए जस्टिस गवई ने देश में हो रहे बुलडोजर एक्शन की कडे शब्दों में निंदा की। कानून के शासन का सिद्धांत और भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा उसकी व्यापक व्याख्या पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि इस फैसले ने एक स्पष्ट संदेश दिया है कि भारतीय न्याय व्यवस्था बुलडोजर के शासन से नहीं बल्कि कानून के शासन से संचालित होती है। उल्लेखनीय है कि बुलडोजर कार्यवाही के मामले में दिए गए फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि कथित अपराधों को लेकर अभियुक्तों के घरों को गिराना, कानूनी प्रक्रियाओं को दरकिनार करता है। कानून के शासन का उल्लंघन करता है और संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत आश्रय के मौलिक अधिकार का उल्लंघन भी करता है। कार्यपालिका अन्य भूमिका नहीं निभा सकती।
सामाजिक क्षेत्र में ऐतिहासिक अन्याय के निवारण के लिए कानून बनाए गए हैं और हाशिए पर पड़े समुदायों ने अपने अधिकारों का दावा करने के लिए अक्सर इनका और कानून के शासन की भाषा का सहारा लिया है।
उन्होंने कहा कि राजनीतिक क्षेत्र में कानून का शासन, सुशासन और सामाजिक प्रगति के मानक के रूप में कार्य करता है, जो कुशासन और अराजकता के बिल्कुल विपरीत है। आयोजन में मॉरीशस के राष्ट्रपति धर्मबीर गोखूल, प्रधानमंत्री नवीनचंद्र रामगुलाम सहित वहां के प्रधान न्यायाधीश रेहाना मुंगली गुलबुल आदि भी उपस्थित थे। गत दो सप्ताह में जस्टिस गवई द्वारा बुलडोजर एक्शन की दूसरी बार निंदा की गई। देश के आन्तरिक हालातों पर अनेक दलों के जन्मजात नेताओं द्वारा हमेशा ही विदेशों का भावनात्मक सहयोग लेने हेतु देश को कोसने की घटनायें सामने आती रहीं हैं परन्तु मुख्य न्यायाधीश द्वारा अपने ही देश के आन्तरिक हालातों को रेखांकित करने का संभवतः यह पहला अवसर है।
अतिक्रमण करने की प्रवृत्ति को बढावा देने वाले इन फैसलों पर उत्तरदायी लोगों को एक बार पुनः गहराई से विचार करना चाहिए ताकि सरकारी भूमि, सरकारी सम्पत्ति और सरकारी व्यवस्था पर मौलिक अधिकार, नैतिक अधिकार और मानवीय अधिकारों के नाम पर हो रहे अवैध कब्जों पर पूर्णविराम लग सके। संविधान के जिस अनुच्छेद 21 के तहत आश्रय के मौलिक अधिकारों की बात की जा रही है, वह स्वाधीनता के समय पर भले ही प्रासांगिक रही हो परन्तु वर्तमान में वह हथियार बनाकर मनमानी, गुण्डागिरी और आतंकराज को खुला संरक्षण दे रहा है। इस संबंध में सबसे पहले तो कार्यपालिका को दोषी ठहराया जाना चाहिए जिसके द्वारा भारी भरकम वेतन के बदले में सौंपे गये दायित्वों की पूर्ति में कोताही बरतते हुए अतिक्रमण के प्रारम्भिक काल में कार्यवाही नहीं की जाती। यही अतिक्रमण बाद में षडयंत्रकारियों के लिए आश्रय का मौलिक अधिकार बनकर खडा हो जाता है।
अतिक्रमणकारियों के साथ – साथ कार्यपालिका के उत्तरदायी अधिकारियों पर जब तक कठोर दण्डात्मक कार्यवाही नहीं होगी तब तक न तो अतिक्रमण जैसे आपराधिक कृत्यों की इति होगी और न ही उनके संरक्षणदाताओं की नस्लें ही समाप्त हो सकेंगी। राजस्व सहित अन्य विभागों के अधिकारियों-कर्मचारियों द्वारा विभागीय सम्पत्ति की सतत सुरक्षा, नियमित निगरानी और तत्काल कार्यवाही न होने करने के परिणामस्वरूप अतिक्रमण जैसी घटनायें सामने आती हैं। उन अवैध कब्जों पर विद्युत विभाग द्वारा बिजली का कनेक्शन, स्थानीय निकायों द्वारा सडकों का निर्माण, जल संस्थान द्वारा जलापूर्ति सहित आधार कार्ड, वोटर कार्ड, राशन कार्ड जैसे दस्तावेज भी जारी हो रहे हैं।
ईमानदार करदाताओं की खून-पसीने की कमाई से मोटी पगार उठाने वाले सरकारी मुलाजिमों से नियमित रूप से दैनिक कार्य आख्या न मांगने के कारण ही उसका एक बडा तबका मनमानियों, अनियमितताओं और लापरवाहियों के निरंतर कीर्तिमान गढता चला जा रहा है। कहा जाता है कि न्यायपालिका द्वारा भी कार्यपालिका की अधिकांश अनियमितताओं को निरंतर नजरंदाज किया जाता रहा है। जब तक स्वतः संज्ञान लेकर उच्चतम न्यायालय द्वारा समाज के अंतिम छोर पर बैठे पीडित व्यक्ति को राहत देने की पहल नहीं की जायेगी, कार्यपालिका के अधिकारियों–कर्मचारियों को उनकी लापरवाहियों के लिए कठोर दण्ड नहीं दिये जायेंगे और अनुशासन का सभी पर कडाई से पालन नहीं कराया जायेगा तब तक देश के वर्तमान हालातों का सकारात्मक दिशा में तीव्रगामी होना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। मिटाना होंगे न्यायपालिका के वर्तमान स्वरूप पर अंकित होते प्रश्नचिन्ह तभी पारदर्शिता के व्यवहारिक मापदण्ड स्थापित हो सकेंगे।
वर्तमान में उच्च और उच्चतम न्यायालयों तक केवल और केवल धनपतियों के माध्यम से ही पहुंच सम्भव हो पा रही है। इन न्यायालयों से केवल और केवल अंग्रेजी में ही संवाद करने की व्यवस्था है और काले कोटधारी काले अंग्रेजों तक चांदी के सिक्कों से ही सम्पर्क संभव हो पा रहा है। नोटों की गड्डियों का विकल्प बनकर राजनैतिक पहुंच, व्यक्तिगत लाभ और स्वार्थ के मापदण्ड भी सामने आ रहे हैं। वैदिक संस्कृति से जुडे आयुर्वेद, संस्कार, लोकाचार, लोकरीति, परम्पराओं जैसी विरासतों पर न्यायालयों में कभी याचिकायें प्रस्तुत हो जातीं है तो कभी कोर्ट द्वारा स्वतः संज्ञान ले लिया जाता है। कोरोना काल में तो अंग्रेजी दवाओं की मनमाना उपयोग होता रहा जबकि आयुर्वेद नुस्खों पर खासी पाबंदी लगाई जाती रही। आयुर्वेद के प्रचार पर भी मौका मिलते ही नकेल कस दी जाती है। सनातन को निशाना बनाने के अनगिनत मामले न्याय के मंदिर से फरमान बनकर जारी होते रहे हैं।
इतिहास गवाह है कि देश के सर्वोच्च पद पर आसीत राष्ट्रपति को भी कटघरे में खडे करने हेतु कोशिशें हो चुकीं हैं। ऐसे में विदेश की धरती पर देश के आन्तरिक हालातों को मुख्य न्यायाधीश व्दारा रेखांकित करने की घटना ने उनके लिए स्वःचिन्तन की आवश्यकता का धरातल तैयार कर दिया है। आम आवाम को भी न्याय व्यवस्था के वर्तमान स्वरूप की समीक्षा करना होगी तभी नूतन कालखण्ड की चुनौतियों से निपटना संभव हो सकेगा। स्वाधीनता काल की तात्कालिक परिस्थितियों में निर्मित किये गये संविधान को वर्तमान के साइबर युग के अनुरूप नये ढंग से संशोधित करना होगा तभी अंतरिक्ष पर पहुंच चुकी दुनिया के साथ कदमताल संभव हो सकेगा। इस बार बस इतना ही।अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।










