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भविष्य की आहट / मानवता के मूल्यों पर कफन लपेटने की तैयारी: डा. रवीन्द्र अरजरिया

डेस्क न्यूज। देश-दुनिया में साम्प्रदायिकता की आग निरंतर तेज होती जा रही है। जीवन जीने की पध्दति को लेकर वर्चस्व की जंग में कट्टरपंथियों की जमातें महात्वपूर्ण भूमिका निभा रहीं हैं। कहीं गाल फाडकर एकता के नारे बुलंद हो रहे हैं तो कहीं गुप्त बैठकों का दौर चल रहा है।

कहीं एकता की दुहाई दी जा रही है तो कहीं एक रहने वालों को खूनी युध्द छेडने के लिए उकसाया जा रहा है। अतीत की दुहाई पर वर्तमान में अधिकारों को लेने की होड लगी है। बाह्य आतितायियों की लिखी इबारत को मिटने में जुटे पक्ष पर धर्मान्तरण कर चुकी पीढियों की तलवारें चल रहीं है। अनेक राष्ट्रों में धर्म के नाम पर खून बहाने वालों को न केवल सरकारी संरक्षण दिया जा रहा है बल्कि उनके अमानवीय कृत्यों के समानान्तर पुलिसिया प्रहार भी हो रहा है।

बंगलादेश के हालतों पर अनेक देशों ने चिन्ता व्यक्त की है परन्तु संयुक्त राष्ट्र संघ इस पर मौन है। वहां की कट्टरपंथी यूनुस सरकार ने हिन्दू धर्माचार्य चिन्मय प्रभु सहित रुद्रप्रोति केसब दास तथा रंगनाथ श्याम सुन्दर दास को मनमाने ढंग से गिरफ्तार करके सलाखों के पीछे प्रताडित करना शुरू कर दिया है। कट्टरपंथियों व्दारा गैर प्रमाणित आरोपों पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने सैकडों बार एडवाइजरी जारी की है परन्तु इस्लामिक आतंक पर उसकी जुबान तालू से चिपक जाती है। संघ के विवादास्पद रहने वाले महासचिव एंटोनियो गुटेरेस व्दारा अनेक बार किन्ही खास कारणों से वैश्विक वैमनुष्यता के मुद्दों पर कट्टरपंथियों को खुला समर्थन दिया जाता रहा हैं। इसी कारण से इजराइल ने उसे प्रतिबंधित करने तक की कार्यवाही की घोषणा की थी।

कोराना काल में चीन को क्लीन चिट देने वाले एंटोनियो गुटेरेस ने तत्कालीन विकट परिस्थितियों में अनेक मानवता विरोधी वक्तव्य भी जारी किये थे। चन्द षडयंत्रकारी देशों की शह पर संयुक्त राष्ट्र संघ के अध्यक्ष फिलेमान यैंग तक को महासचिव ने नियमों की मनमानी व्याख्या करके हाशिये पर पहुंचा दिया है। गैर मुस्लिम लोगों को लम्बे समय से इस्लामिक कट्टरपंथी निरंतर निशाना बनाते रहे हैं। इस मध्य तो जुल्म की घटनाओं में बेहतहाशा वृध्दि हुई है। आतंकी हमलों की बहुतायत होते ही दहशत का वातावरण निर्मित हो चला है।

पाकिस्तान, बंगलादेश, कनाडा, चीन, अमेरिका, ब्रिटेन जैसे दर्जनों राष्ट्र अपने आंचल में आतंक को न केवल पालपोश रहे हैं बल्कि उन्हें अत्याधुनिक हथियार देकर अनेक देशों के साथ छदम्म युध्द तक कर रहे हैं। दुनिया के हालातों से कहीं अधिक घातक देश की आन्तरिक स्थिति होती जा रही है। सनातन एकता के नाम पर दिखावे वाले प्रयासों पर धरातली हमलों का जबाब मिलने लगा है। नारों की आवाज पर आक्रमण की प्रतिध्वनियां गूंजने लगीं हैं। राजनैतिक दरवाजे से उकसावे की चीख लगाने वाले ओवैसी के साथ मजहबी मंचों से उलेमाओं का शोर हाहाकार मचाने को बेचैन है। मजहबी एकता के सामने सनातनी ढिढोरों की आवाज नक्कारखाने में तूती बनकर रह गई है। जातिगत विभाजनों को मिटाने की पहल पर जातीय विभाजन के पक्षधर सीना तानकर सामने आ रहे हैं।

बागेश्वर धाम के पीठाधीश्वर धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री की सनातन एकता यात्रा के उद्देश्यों पर कांग्रेसी विचारधारा के पक्षधर रहे शंकराचार्य स्वरूपानन्द जी के शिष्य अविमुक्तानन्द जी ने खुलकर विरोध शुरू कर दिया है। उन्होंने अपने वक्तव्यों ने वैचारिक विभेद की हांडी को चौराहे पर फोड दिया है। संभल से लेकर अजमेर तक के धार्मिक आस्थानों पर चल रहे विवाद पर 8 सेक्सन वाले द प्लेसेज आफ वर्शिप एक्ट 1991 की दुहाई दी जा रही है। यूं तो सन् 1965 में ताजमहल को अतीतकालीन शिव मंदिर के रूप में रेखांकित करने की पहल हुई थी परन्तु तत्कालीन सत्ताधारियों ने वोट बैंक की दूरगामी नीतियों के तहत उसे बलपूर्वक मिटा दिया था। ऐसे प्रयास समय-समय पर होते रहे हैं।

सनातनी धरती पर बाह्य आक्रान्ताओं ने आस्था के आयामों को तोडा, उन पर स्वयं की आराधना पध्दति के गुम्बज स्थापित किये और चाटुकारों की एक बडी संख्या को अपना अनुयायी बनाकर हमेशा के लिए अशान्ति का बीजारोपण कर दिया। वास्तविकता में देखा जाये तो जीवन जीने की कला और आस्था के बदले प्रतिमानों ने ही भाई को भाई का दुश्मन बना दिया है जबकि जेहाद के मैदान में कूदने वाले और उनका शिकार होने वाले एक ही डीएनए के साथ सांसों का व्यापार कर रहे हैं। एक ओर मजहबी कट्टरता की लौह दीवाल और दूसरी ओर पाश्चात्य संस्कृति में डूबती जा रही विरासत। दौनों को ही अतीत की स्मृति दिलाने की आवश्यकता है। आस्था के वास्तविक अर्थ में परमसत्ता के निराकार स्वरूप की स्थापना की गई है जिसके प्रारम्भिक चरणों में आलम्बन हेतु मंदिरों, मस्जिदों, मजारों, गुरुव्दारों आदि की व्यवस्था की गई थी।

इसी प्रारम्भिक व्यवस्था को कालान्तर में चन्द चालाक लोगों ने निजी स्वार्थ की पूर्ति और संग्रह की लालसा के वशीभूत होकर षडयंत्र के तहत अन्तिम सोपान के रूप में जडता प्रदान कर दी थी जो सिध्दान्त बनकर परिणाम देने लगी है। मुस्लिम विचारधारा में जो मस्त की पदवी है वही हिन्दू विचारधारा में औघड की स्थिति है। सब कुछ अन्त:करण में ही घटित होता है। सुख-दु:ख जैसी अनुभूतियां जब हृदय कक्ष में हिलोरें लेतीं है तब मस्तिष्क में आनन्द का अम्बार लगता है। परमात्मा की अनुभूति तो बंद आंखों में होती है, खुली आंखों से तो केवल नाशवान संसार ही दिखता है। मृत होने वाली काया ही दिखती है। क्षण भर टिकने वाला सम्मान मिलता है। समाप्त हो जाने वाले प्रसंग ही मिलते हैं।

ऐसे में वर्चस्व की मृगमारीचिका के पीछे भागने वाले कट्टरपंथी केवल और केवल लाशों पर शासन करने के प्रयास कर रहे हैं। कहीं गुजरे हुए वक्त को लौटाने की कोशिशें हो रहीं है तो कहीं वर्तमान के अधिपत्य को लेकर हठधर्मिता बनी हुई है। निजिता के दायरे में आने वाली आस्था को चौराहे की मूर्ति बनाने के प्रयासों को रोकना होगा अन्यथा मानवता के मूल्यों पर कफन लपेटने की तैयारी में लगे षडयंत्रकारियों के मंसूबे पूरे होते देर नहीं लगेगी। इस बार बस इतनी ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।

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