भविष्य की आहट/ रोकना होगा नई सुबह के बाद काली रात का आगमन: डा. रवीन्द्र अरजरिया

डेस्क न्यूज। पाश्चात्य संस्कृति में रचे-बसे नये वर्ष का शुभारम्भ होते ही देश में राजनैतिक उथल-पुथल तेज होने लगी है। बिहार की सत्ता में वहां के राजनेताओं का नया मेलजोल नये ढंग के समीकरण पैदा करने लगे है। नीतीश कुमार का लालू यादव के साथ अंतरंग संवाद, दिल्ली दरबार में एकतरफा आमद और राज्य के बदलते परिदृश्य ने समीक्षाकारों को नयी भविष्यवाणियां करने का अवसर दे दिया है।
बिहार लोक सेवा आयोग के क्रियाकलापों पर विपक्ष ने मोर्चा खोल रखा है जिसमें लाल सलाम करने वाले सर्वाधिक सक्रिया हैं। इस मौके को भुनाने हेतु प्रशान्त कुमार भी जी तोड प्रयास कर रहे हैं। सरकारी तंत्र पर आरोपों-प्रत्यारोपों से लेकर कथित आरोपियों पर प्राथमिकी तक की स्थितियां निर्मित हो चुकीं हैं। इसी मध्य महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस की प्रशंसा करने वालों में उध्दव ठाकरे ने भी अपना नाम दर्ज कराना दिया है। बाला साहब ठाकरे के बाद उनके वंशसूत्रों को भी अपने अवसरवादी सिध्दान्तों और कट्टरवादिता से समझौता करने पर ग्लानि होने लगी है।
यह राजनैतिक घटक अब पुन: हिन्दूवादी मानसिता प्रदर्शित करने लगा है। वहीं दिल्ली के चुनाव में तो सभी राजनैतिक दल मुफ्तखोरों की जमातें तैयार करने में युध्दस्तर पर लगे हुए हैं। पुजारियों-ग्रंथियों को तनख्वाह, आटो चालकों को सुविधायें, पानी के बिल माफ करने की गारंटी, महिलाओं के लिए विशेष योजनायें, शिक्षा-चिकित्सा में नई व्यवस्थायें जैसे अनगिनत लुभावने वायदे किये जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश सरकार में भागीदार लोग अब आपस में ही शब्द युध्द करते दिख रहे हैं। मणिपुर फिर से लहू में डूबने लगा है। छत्तीसगढ में तो पत्रकारिता जगत के एक जांबाज रिपोर्टर को धनपशुओं व्दारा कष्टप्रद मौत की नींद में सुला दिया गया।
नक्सली क्षेत्र में 120 करोड की लागत से बनने वाली गंगालूर-हिरौली सडक के ठेकेदार सुरेश चन्द्राकर ने युवा पत्रकार मुकेश को अपने भाई रितेश के माध्यम से न केवल बर्बरतापूर्ण मौत दी बल्कि शव को सेप्टिक टैंक में चुनवा भी दिया ताकि हत्या के सबूत निटाये जा सकें। संभल को लेकर राजनैतिक बयानबाजी निरंतर तेज होती जा रही है। जहां एक ओर प्रधानमंत्री मोदी व्दारा अजमेर शरीफ में चादर भेजने का मामला ठिठुरती रातों में गर्महट पैदा कर रहा है वहीं पश्चिमी बंगाल में ममता की तानाशाही और सीमापार से घुसपैठ भी बरसात करने लगी है। कुम्भ के महाआयोजन पर आतंकी हमलों का कोहरा घना होता जा रहा है।
छदम्मवेषधारी मीरजाफरों की जमातें देश के अन्दर हूती, आईएसआईएस, हिजबुल्लाह जैसे संगठन बनाने में जुटीं हैं। इन गद्दारों को सीमापार से न केवल आर्थिक मदद मिल रही है बल्कि हथियारों, विस्फोटकों और संसाधनों की खेपें भी पहुंचाई जा रहीं हैं। दुश्मन देशों से प्रशिक्षण लेकर लौटी कट्टरपंथियों की भीड अलग-अलग खेमों में बटकर अशान्ति फैलाने की तैयारियों में जुट गई हैं। पूर्वोत्तर राज्यों में चीनी दखनंदाजी ने विस्तार लिया है तो पश्चिमोत्तर राज्य पाकिस्तानियों की खुराफातों से त्रस्त हैं। जम्मू-कश्मीर की सरकार का पक्षपातपूर्ण रवैया तो जग जाहिर ही है। देश भर में राजनैतिक अस्थिरता, आन्तरिक कलह और सम्प्रदायगत मुद्दे तेजी से उभर रहे हैं।
संसद में बिलों को अटकाने, विरोध के नाम पर मर्यादाओं को तार-तार करने और निजी हितों के लिए सार्वजनिक लाभ को तिलांजलि देने जैसे कारक दिन दुगने, रात चौगुने वाली कहावत को ही चरितार्थ कर रहे हैं। गुजरे साल में अस्थिरता की लिखी गई इबारत अब असर दिखाने लगी है। राष्ट्रवाद पर परिवारवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद, पूंजीवाद, आतंकवाद, स्वार्थवाद जैसे घातक तत्व हावी होते जा रहे हैं। सदनों में मुट्ठी भर प्रतिनिधियों का नेतृत्व करने वाले भी स्वयं को मठाधीश समझने लगे हैं। देश की व्यवस्था को पतन के गर्त में पहुंचाने वाले अनेक दल अकर्मण्य नागरिकों की बढोत्तरी करके देश पर दोधारी प्रहार करने में जुटे हैं।
मुफ्तखोरी के उपहारों से जीवकोपार्जन की चिन्ता से मुक्ति पाकर कट्टरपंथियों की फौजें साम्प्रदायिकता की आड में राष्ट्रघाती प्रयासों में अपनी ऊर्जा और समय लगा रहीं है। समझना होगा कि नि:शुल्क योजनाओं पर बहाये जाने वाला पैसा सत्ताधारी राजनैतिक दल के खातों से नहीं बल्कि ईमानदार करदाताओं के खून पसीने की कमाई से जाता है। टैक्स से जुटाई जाने वाली धनराशि जब मुफ्त में लुटाई जायेगी तो उसकी भरपाई के लिए टैक्स में वृध्दि होना स्वाभाविक है।
टैक्स बढने के साथ ही महंगाई भी बढेगी। दूसरी ओर रोजगार के नाम पर सरकारी नौकरियों की मांग बढती जा रही है। स्व:रोजगार के धरातली आंकडे निरंतर घट रहे हैं। सरकारी नौकरी को भी अधिकांश लोग मुफ्तखोरी ही मानते हैं। उनका सोचना है कि तनख्वाह तो हमें भाग्य से मिल रही है, काम के बदले में हितग्राही से मनमाने दाम लेने का अधिकार तो पद पर पदस्थ होते ही मिल गया था। सरकारी नौकरियां पाने वाले ज्यादातर लोग राष्ट्र सेवा के लिए नहीं बल्कि कामचोरी, निजी लाभ कमाने तथा सुविधायें लेने के लिए शामिल होते हैं। तभी तो सम्पन्न व्यक्तियों को सरकारी संस्थानों से ज्यादा विश्वास निजी संस्थानों व्दारा संचालित सेवाओं पर होता है।
करदाताओं व्दारा दी जाने वाली एक बडी धनराशि सरकारी सेवकों की तनख्वाय, उनकी सुविधाओं और संसाधनों पर खर्च हो रही है। ऐसे लोग अपने-अपने विभागों में नित नई पैचैंदगी पैदा करके आम आवाम को जटिलता में फंसाने की कोशिश में रहते हैं। वर्तमान में व्यवस्था तंत्र के अन्दर और बाहर धनपिपासुओं की भीड लगी है जो विलासता से लेकर विरासतें बढाने में लगे हैं। देश को संचालित करने हेतु जनप्रतिनिधि बनकर पहुचने वाले अधिकांश लोगों की दलगत सोच केवल और केवल सत्ता हथियाने तक ही सीमित होती जा रही है।
जातियों, वर्गों, सम्प्रदायों, भाषाओं, क्षेत्रों आदि के आधार पर विभाजन करने वाली घटनाओं के पीछे संकीर्ण मानसिकता वाले परिवारवादी लोगों की कुटिल चालें ही उत्तरदायी होती हैं। आवश्यकता है इस नववर्षारम्भ पर राष्ट्रहित की सोच, राष्ट्र्रपक्ष की मानसिकता और राष्ट्रवादिता के मापदण्ड स्थापित करने का संकल्प लेने की ताकि देश के आन्तरिक और बाह्य हालातों पर समूचा नागरिक समुदाय एकजुट होकर विघटनकारी ताकतों को धूल चटा सके। रोकना होगा नई सुबह के बाद काली रात का आगमन अन्यथा अपनों के विरोध में अपने ही स्वर गूंजते सुनाई देने लगेंगे। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।