भविष्य की आहट/ संसार में रामराज्य के सैध्दान्तिक स्वरूप की मांग: डा. रवीन्द्र अरजरिया

डेस्क न्यूज। समाज में सभ्यता का प्रादुर्भाव होते ही व्यवस्था देने की गरज से लोकतंत्र, राजतंत्र और बलतंत्र की स्थापना का प्रचलन प्रारम्भ हुआ जिसने समय के साथ बदलाव स्वीकार किया और धनबल, जनबल, बाहुबल, छलबल जैसे कारकों का वर्चस्व स्थापित होने लगा।
पुरानी परम्पराओं में स्वीकार की गई मान्यताओं का रूढियों में हस्तांतरण होते ही नवीनता के नाम पर चन्द लोगों व्दारा छुपे हुए स्वार्थों की पूर्ति हेतु तत्कालीन व्यवस्था का अपहरण किया जाता रहा है। कभी सहकारिता के आधार पर व्यवस्थायें बनी तो कभी प्रतिभाओं को दयित्व सौंपे गये। कभी बहुमत से मुखिया का चुनाव हुआ तो कभी अनुभवी व्यक्ति को व्यवस्था की बागडोर सौंपी गई। सभ्यता के प्रारम्भिक काल में कर्म के आधार पर व्यवस्था का पुनीत कार्य किया जाता था परन्तु बदलते समय के साथ अहंकार, लोभ, मोह, तृष्णा, लालच, स्वार्थ जैसी विकृतियों ने मानवीय काया मे प्रवेश कर लिया।
षडयंत्रकारियों को लालची लोगों की भीड मिलना शुरू हो गई। धर्म के स्थान पर वैभव ने आसन जमा लिया। छल से धन का संग्रह करने वालों ने धन से लोगों की भीड एकत्रित की और फिर भीड का बल दिखाकर सत्ता पर कब्जा कर लिया। साम, दम, दण्ड, भेद की चौपाइयों पर चौपालें सजाई जाने लगीं। मनमाने फरमान जारी होने लगे। समान स्वार्थ वालों ने सीधे-सरल लोगों को बल के आधार पर भयाक्रान्त किया और फिर थोपे गये परिवादवाद-वंशवाद के नये शासक। क्षमता के आधार पर स्वीकारे गये कार्यों की वर्ण व्यवस्था को जन्म के आधार पर करने के लिए मजबूर किया गया। बस यहीं से जाति व्यवस्था का विष बीज रोपित हुआ। वर्गीकरण के आधार पर विभाजन के नये अध्याय लिखे जाने लगे। छोटे समूहों के समाजों का कबीलाई स्वरूप शनै: – शनै: विकसित होता चला गया।
रियासतों-जागीरों का प्रादुर्भाव हुआ और फिर बने राज्य, राष्ट्र और राष्ट्रीय संघ। सामाजिक व्यवस्था के नाम पर जटिलताओं का अम्बार लगता चला गया। स्वार्थ की चरमसीमा अन्तविहीन हो गई। वर्तमान में मानवता की विवेचनायें अपना अर्थ खो चुकीं हैं। सिध्दान्त समाप्त हो गये हैं। सकारात्मक दृष्टिकोण का अंंधापन जग जाहिर है। सदन से लेकर समाज के अन्तिम छोर तक मर्यादाओं की होली जलाई जा रही है। स्वार्थ के ठहाकों के मध्य कर्तव्यों की करुण पुकार सुनने वाला कोई नहीं है। भय ने व्यवस्था को बंदी बना लिया है। कहीं विस्तारवादी देश अपनी सीमाओं को नया आकार देने में लगे हैं तो कहीं अहंकार की होड में आम जिन्दगियां तबाह हो रहीं हैं।
कहीं कथित धर्म की आड में कट्टरता का नारा बुलंद हो रहा है तो कहीं प्राचीनतम होने की कस्में खाईं जा रहीं है। कहीं आक्रान्ताओं की शान में कसीदे पढे जा रहे हैं तो कहीं कष्टप्रद अतीत की निशानियां मिटाने की पहल हो रही है। आगन्तुक आतिताइयों की गुलामी करने वाली जमातें इतिहास की मजबूरियों को वर्तमान में भी यथावत ढोती जा रहीं हैं। उन्हें अब गुलामी की इबारत ही अपने वजूद की इकलौती हकीकत लग रही है। ईमानदाराना बात तो यह है कि एकमात्र सर्वोच्च सत्ता को प्रकाश, रोशनी, ज्योति, लाइट, नूर जैसे एक ही कारक को अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग नाम दिये गये हैं मगर सभी का अर्थ एक है, स्वीकारोक्ति एक है, मान्यतायें एक है। उस अदृश्य सत्ता को देखने की सामर्थ मानवीय आंखों में नहीं है, उसके संदेश सुनने की ताकत कानों में नहीं है, उसका स्पन्दन स्वीकारने का बल शरीर में नहीं है।
पुरातनकाल के अपने तपोबल से सर्वोच्च सत्ता की अनुभूतियां प्राप्त करने वाले महापुरुषों ने अलग-अलग मार्ग बताये। मगर अनुयायियों ने उनके बताये मार्ग पर न चलकर महापुरुषों के जन्म स्थान, मृत्यु स्थान, साधना स्थान आदि को इबादतगाहों-तीर्थों में तबदील कर दिया। वहां पर जाकर इबादत करने, पूजा करने जैसे कृत्य विस्तार पाने लगे। अनुयायियों ने भी आगन्तुकों की सेवा के लिए धनार्जन का नया रास्ता चुन लिया। ऐसे में महापुरुषों के दिये गये सिध्दान्त गौण होते चले गये। व्यक्ति पूजित होने लगा। सद्कर्म समाप्त हो गये। महापुरुषों की गद्दियां होतीं है, कोई गद्दी से महापुरुष नहीं होता। यह बात लोगों की समझ में नहीं आ रही है। वंशवाद के आधार पर सामर्थ का आना सम्भव नहीं है।
सनातन की मान्यता के अनुसार सृष्टि की रचना बृह्मा जी ने की है जिनके पुत्र ऋषि पुलस्त्य थे। ऋषि पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा थे जिन्होंने रावण जैसी संतान को जन्म दिया। विव्दता की सामर्थ होने का बाद भी वह एक वनवासी के हाथों मारा गया। कारण स्पष्ट है कि तानाशाही, अहंकार, बल के दुरुपयोग, विलासता की आकांक्षा और सत्ता के घमण्ड ने उसका दुख:द अंत कर दिया। अनुशासन, न्याय, भाईचारा, सद्भावना, परोपकार, आज्ञापालन जैसे गुणों के समुच्चय से परिपूर्ण श्रीराम ने मानवता के शत्रुओं का संहार ही नहीं किया बल्कि समाज के उपेक्षित वर्ग की सामर्थ का लोहा भी मनवा दिया। वे श्रीराम से भगवान श्रीराम बन गये।
उल्लेखनीय है कि नक्षत्र विज्ञान और ज्योतिष के अनुसार यह संधिकाल मानवीय चेतना हेतु सर्वाधिक ऊर्जावान है जिसमें शक्ति के महापर्व का समापन और मर्यादा पुरुषोत्तम का अवतरण एक साथ हो रहा है। शक्ति साधना की पूर्णाहुति पर ब्रह्म का आगमन निश्चय ही महान क्षण है जिसमें एकाग्रता से की गई प्रार्थना निश्चय ही सफल होती है। रामराज्य की कल्पना का अर्थ किसी जाति, धर्म, सम्प्रदाय तक ही सीमित नहीं है बल्कि उस काल के घटनाक्रम की प्रेरणात्मक उपस्थिति का सार्वभौमिक अस्तित्व है। एक अनुकरणीय अध्याय है जिनका सूक्ष्म विश्लेषण करके दैहिक, दैविक और भौतिक समस्याओं का निदान किया जा सकता है। संसार की समस्त समस्याओं के वृक्ष को भौतिक स्वार्थरूपी जड से पोषण मिल रहा है।
यही सब तो सतयुग, त्रेतायुग और व्दापरयुग के अन्तिम सोपानों में होता रहा है। जब-जब विकृतियों ने मानवीय सोच पर एकाधिकार किया, तब-तब विनाश का बिगुल गूंजा। वर्तमान परिदृश्य में समूचा संसार करने लगा है रामराज्य के सैध्दान्तिक स्वरूप की मांग ताकि जड-चेतन का कल्याण हो सके। युध्द के झंझावात मिट सकें, स्वार्थ का वर्चस्व समाप्त हो सके। विस्तारवादी नीतियों का दमन हो सके। दहशतगर्दी नस्तनाबूद हो सके। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।










